जन्माष्टमी के अवसर पर जाने भगवान् श्री कृष्ण के प्रसिद्ध श्लोक । भगवद गीता के प्रसिद्ध श्लोक

भगवद गीता के सारे श्लोक अमूल्य हैं उन्ही में से मैं कुछ श्लोक और उसके अर्थ लाया हूँ जो मानव जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है ,आप खुद समझ सकते हैं।   

  

द्वितीय अध्याय, श्लोक 62

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते

अर्थ- विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने वाले मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। और उनमें कामना यानी उसे प्राप्त करने की इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए मनुष्य को यही कोशिश करना चाहिए कि विषयाशक्ति से दूर रहते हुए कर्म में लीन रहें। यानि कर्म करते रहो फल की चिंता मत करो। 



तृतीय अध्याय, श्लोक 21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते

अर्थ- श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं ,यानी जैसा काम करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं, यानि दूसरे इंसान भी वैसा ही काम करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।


द्वितीय अध्याय, श्लोक 23


नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत

अर्थ- आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है, न पानी उसे भिगो सकता है, और ना ही हवा उसे सुखा सकती है। यहां श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।आत्मा अमर है। 



चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम
अर्थ- हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म की हानि होती है ,या उसका नाश होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूं अर्थात मैं इस  संसार में अवतार लेता हूं।


चतुर्थ अध्याय, श्लोक 8

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे। 
अर्थ- सत्य मार्ग पर चलने वाले पुरुषों(साधु जन) के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए धर्म की स्थापना करने के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता हूं।

चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति
अर्थ- श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधन पारायण हो कर अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त हो जातें हैं।
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Gautam kr. Suraj

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